परिचय
भारत में देवदासी प्रथा एक सामाजिक बुराई रही है, जिसमें लड़कियों को मंदिरों की सेवा के नाम पर इस दलदल में धकेल दिया जाता है। यह प्रथा खासकर कर्नाटक, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु में प्रचलित रही है। सरकार ने 1982 में इसे अवैध घोषित कर दिया था, लेकिन आज भी चोरी-छिपे यह कुप्रथा जारी है। देवदासी बनने के बाद महिलाओं को यौन शोषण और वेश्यावृत्ति का सामना करना पड़ता है।
इस लेख में हम शोबा मथाड और उनके जैसी हजारों महिलाओं की सच्चाई को समझेंगे, जिन्होंने इस प्रथा का दर्द झेला है।
देवदासी प्रथा का इतिहास और सामाजिक पहलू
देवदासी प्रथा प्राचीन काल में धार्मिक सेवा से जुड़ी थी, लेकिन समय के साथ यह शोषण का माध्यम बन गई। लड़कियों को देवी के नाम पर समर्पित कर दिया जाता है और फिर उन्हें यौन व्यापार में धकेल दिया जाता है।
देवदासी बनने की प्रक्रिया
- परिवार की सहमति से लड़कियों को देवी को समर्पित किया जाता है।
- मंदिरों में विशेष अनुष्ठान कर उन्हें देवदासी घोषित किया जाता है।
- इसके बाद वे समाज में ‘अविवाहित’ मानी जाती हैं और पुजारियों व अन्य प्रभावशाली लोगों द्वारा शोषण की जाती हैं।
- फिर इन्हें शहरों में सेक्स वर्क के लिए मजबूर किया जाता है।

क्यों लड़कियों को देवदासी बनाया जाता है?
- अंधविश्वास: लोग मानते हैं कि लड़की को समर्पित करने से देवी प्रसन्न होंगी।
- गरीबी: कई बार परिवार आर्थिक तंगी के कारण अपनी बेटियों को इस दलदल में झोंक देते हैं।
- सामाजिक दबाव: यदि परिवार में पहले से कोई देवदासी रही हो तो नई पीढ़ी की लड़कियों पर भी दबाव होता है।
देवदासियों की दर्दनाक सच्चाई: दो कहानियां
1. सपना की कहानी
बेलगावी जिले के हल्लूर गांव की सपना की कहानी दिल दहला देने वाली है। उनके पिता मनोहर ने कहा, “हमारी पाँच बेटियाँ थीं। उन्हें पढ़ाना संभव नहीं था, इसलिए हमने सबसे बड़ी बेटी को देवदासी बना दिया। अब वह महाराष्ट्र में सेक्स वर्कर है और हमें पैसे भेजती है।”
2. नेहा की कहानी
बागलकोट की नेहा को कम उम्र में देवदासी बना दिया गया। वे कहती हैं, “मुझे कई बार भागने का मन हुआ, लेकिन मेरे परिवार को पैसे की जरूरत थी। इसलिए मैंने इस जीवन को अपनाने का फैसला कर लिया।”

देवदासियों के बच्चे: पहचान का संकट
देवदासियों के बच्चे भी सामाजिक शर्मिंदगी झेलते हैं। जब स्कूल में उनसे पिता का नाम पूछा जाता है, तो वे अपमानित महसूस करते हैं। कर्नाटक के कोप्पल जिले की शोबा मथाड बताती हैं,
“मेरे बेटे को 12वीं और बेटी को 8वीं में पढ़ाई के दौरान जब पिता का नाम पूछा जाता था, तो वे बहुत शर्मिंदगी महसूस करते थे।”
देवदासी प्रथा के खिलाफ उठते कदम
1. कानून और प्रतिबंध
1982 में कर्नाटक सरकार ने देवदासी प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया। लेकिन यह आज भी चोरी-छिपे जारी है।
2. गैर-सरकारी संगठनों की भूमिका
- NGO और सामाजिक कार्यकर्ता देवदासियों को समाज की मुख्यधारा में जोड़ने का प्रयास कर रहे हैं।
- आत्मनिर्भरता की ओर कदम: कुछ देवदासियों को छोटे व्यवसाय, सिलाई, बुनाई और अन्य कामों में प्रशिक्षित किया जा रहा है।
सरकार की योजनाएं और उनकी हकीकत
1. पेंशन योजना
सरकार हर पूर्व देवदासी को ₹2000 मासिक पेंशन देती है, जो पर्याप्त नहीं है। शशिकला (36) कहती हैं, “₹2000 में गुजारा करना असंभव है। सरकार को इसे बढ़ाना चाहिए।”
2. पुनर्वास योजनाएं
सरकार देवदासियों को घर बनाने के लिए ₹1.8 लाख देती है, लेकिन यह तभी मिलता है जब उनके पास अपनी जमीन हो।
3. शिक्षा और पहचान का मुद्दा
देवदासियों के बच्चों को सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिलता क्योंकि हर फॉर्म में पिता का नाम आवश्यक होता है। सरकार को इस नीति में बदलाव करना चाहिए।
क्या समाज बदल सकता है?
1. मानसिकता बदलने की जरूरत
हमें अंधविश्वासों को त्यागकर लड़कियों की शिक्षा और सशक्तिकरण पर ध्यान देना होगा।
2. पुलिस और प्रशासन की भूमिका
- देवदासी बनाने वालों पर सख्त कार्रवाई होनी चाहिए।
- ग्रामीण क्षेत्रों में जागरूकता अभियान चलाना आवश्यक है।
3. महिलाओं का आत्मनिर्भर बनना
बेलगावी की शोबा गस्ती अब इस प्रथा के खिलाफ लड़ रही हैं और दूसरी महिलाओं को भी आत्मनिर्भर बनने की प्रेरणा दे रही हैं।
निष्कर्ष
देवदासी प्रथा आज भी सामाजिक अभिशाप बनी हुई है। कानूनी प्रतिबंधों के बावजूद यह गुप्त रूप से जारी है। यह आवश्यक है कि सरकार, समाज और गैर-सरकारी संगठनों के संयुक्त प्रयासों से इस प्रथा को पूरी तरह समाप्त किया जाए। लड़कियों को शिक्षा और रोजगार देकर उनके सशक्तिकरण की दिशा में काम करना होगा।